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चुनावी मुद्दा : उद्योग के लिए हो ऊर्जा का ‘सदुपयोग’


पटना,(एजेंसी)17 अगस्त। बिहार के गांवों में सबसे अधिक विरहगीत गाए जाते हैं। पूरबी धुन तो बनी ही नौकरी की तलाश में कलकत्ता जाने वालों की पत्नियों या प्रेमिकाओं के लिए। ऐसे क्यों? क्योंकि 100 साल पहले भी यहां के लोग कमाने के लिए दूर देश चले जाते थे। नौकरी या चाकरी यहां नहीं मिलती थी। समय बदला। तो पूरब की जगह लोग पश्चिम जाने लगे। या यूं कहें कि देश के हर हिस्से में।

हर उस शहर में जहां नौकरी मिलती थी। ऐसे क्यों? क्योंकि अपने राज्य में खेती के अलावा कमाई के साधन कम थे। कल-कारखाने गिने-चुने लगे। उद्योग-धंधे का विकास सही ढंग से नहीं हो पाया। पिछले कुछ सालों में स्थिति बदली है, लेकिन कितनी? खुद सरकार मानती है कि उद्योग के क्षेत्र में व्यापक बदलाव की जरूरत है। इस चुनाव में बहस इस बात पर होनी चाहिए कि इस जरूरत को लेकर हमारे राजनीतिक दल कितने गंभीर हैं।

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पिछले दो महीने से चल रही चुनावी बयानबाजी में उद्योग को लेकर गंभीर सवाल या अच्छा वादा किसने किया…? किसी ने नहीं। क्यों? जनता जानना चाहती है कि जिस औद्योगिक विकास से राज्य का चेहरा ही बदल जाएगा, उसे लेकर कौन सी पार्टी क्या सोचती है? जीतकर क्या करना चाहती है? जवाब अभी नहीं मिला। क्यों नहीं मिल रहा।

बिहार के बारे में सर्वविदित है कि यह कृषिप्रधान राज्य है। इसके बाद भी इस प्रदेश को और अधिक आर्थिक ऊंचाई देने के लिए समय-समय पर प्रदेश के अलग-अलग हिस्सों में उद्योग-धंधों को विस्तार दिया गया। मुंगेर का सिगरेट कारखाना हो, मुजफ्फरपुर और मोकामा में भारत वैगन लिमिटेड का रेलवे वैगन कारखाना या फिर उत्तर बिहार की चीनी मिलें अथवा मुजफ्फरपुर या बरौनी का चमड़ा प्रसंस्करण उद्योग इसके बड़े उदाहरण हैं। लेकिन फिर क्या हुआ? कुछ बंद हो गए। कुछ मंदी के शिकार।

बरबाद हुए उद्योग
लेकिन समय एक सा नहीं रहता। कालखंड के अलग-अलग हिस्सों में बिहार में उद्योग धंधे भी प्रभावित हुए। जाहिर है उद्योग धंधे प्रभावित होंगे तो बेरोजगारों की एक बड़ी फौज भी साथ-साथ खड़ी होगी। बिहार में हुआ भी ऐसा ही। समय के अलग-अलग कालखंड में बिहार में राजनीतिक इच्छाशक्ति में कमी का सबसे ज्यादा प्रभाव बिहार के उद्योग धंधों पर ही पड़ा। नतीजा बेरोजगारों की बड़ी फौज समाज में नजर आने लगी। पढ़ाई लिखाई कर अपना भविष्य संवारने की उम्मीद पाले नौजवान भी इसी बेरोजगारी की भीड़ का हिस्सा बनने लगे। ऐसी समस्या के निदान के लिए किसी भी सरकार के पास कोई ठोस योजना या कार्यक्रम नहीं थे।

रोजगार के लिए पलायन मजबूरी बनी
जाहिर है उद्योग धंधे प्रभावी होंगे तो अपना या परिवार का पेट चलाने के लिए लोगों को राज्य की सीमा के बाहर निकलना पड़ा। उद्योग धंधे चौपट हुए तो लोग रोजगार की आस लिए दूसरे राज्यों की ओर पलायन करने लगे।

जिसका बड़ा नुकसान यह हुआ कि बिहार के बाहर के राज्यों में बिहार को बहुत बदनामी उठानी पड़ी। लेकिन, इतने के बाद भी रहनुमाओं या व्यवस्था के रखवालों की पेशानी पर मामूली सा भी बल नहीं पड़ा।

बदलाव का दौर तो आया पर सफलता नहीं
कहते हैं बुरा वक्त भी बीत जाता है। दो हजार के दशक में बिहार में उद्योग धंधों को लेकर बदलाव का दौर तो शुरू हुआ, लेकिन जैसा की उम्मीद की गई थी वैसी सफलता नहीं मिली। कुछ बड़े उद्योग धंधों ने यहां आने का वादा किया, लेकिन संरचना की कमी को मुद्दा बना कर उन्होंने भी कदम पीछे खींच लिए। कुछ ऐसे भी निकले जिन्होंने निवेश के नाम पर सरकार से जमीन से लेकर दूसरे फायदे तो ले लिए लेकिन बिहार का भला नहीं कर सके।

जनता, बेरोजगार आखिर करें तो क्या करें
बड़ा सवाल यह है कि आखिर किसी प्रदेश की इस नाकामी का गुनाहगार कौन है। इसके पीछे राजनीतिक दल, व्यवस्थापक, पूंजी निवेशकों या नौजवानों को लेकर लोग अलग-अलग तर्क दे सकते हैं, परन्तु तर्कों से विकास नहीं हो सकता है। जब बिहार को वास्तविक सहायता और सहयोग की दरकार है तो ऐसे में सबको अपने अपने हिस्से की जिम्मेदारी का निर्वहन करना होगा। नौजवान अपने उज्जवल भविष्य के लिए सरकार की ओर उम्मीद से देख रहे तो ऐसे में रहनुमाओं का भी दायित्व बनता है कि राजनीति के व्यक्तिगत मल्लयुद्ध से अलग हटकर राज्य के औद्योगिक विकास की नीतियां बनाए।

पब्लिक चाहती है
जनता नौकरी चाहती है। स्कूलों की दो-तीन लाख नौकरी या सरकारी दफ्तरों के लिए निकलने वाली हजार-पांच सौ वैकेंसी से बिहार के नौजवानों का बहुत भला नहीं होने वाला। उद्योग लगेंगे। व्यवसाय-वाणिज्य बढ़ेगा, तो नौकरी और कमाई के अवसर बढ़ेंगे। राजनीतिक दल इसके लिए ठोस नीति बनाएं। भूमि अधिग्र्रहण और उद्योग नीति ऐसी बने कि उद्योग लगाने के पहले ही कंपनियां चली नहीं जाएं। इस चुनाव में राजनीतिक दल ठोस औद्योगिक नीति बनाएं।


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