2020 में होगी बीजेपी की अग्निपरीक्षा, अब दिल्ली और बिहार का किला होगा अपना
January 11, 2020
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साल 2019 में भारतीय जनता पार्टी नया कीर्तिमान रचा। वह पहली ऐसी गैर कांग्रेस पार्टी बनी जिसने लगातार दूसरी बार केंद्र की सत्ता हासिल की। लेकिन विधानसभा चुनाव में वह अपना जादू बरकरार नहीं रख पाई। कई राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में उसे करारे झटके लगे। महाराष्ट्र में शिवसेना ने उसे गच्चा दिया और झारखंड में वह बुरी तरह हारी। हरियाणा में किसी तरह गठबंधन की सरकार बना पाई। यानि उसने खोया ज्यादा, पाया कम।
साल 2020 में भी उसके सामने दिल्ली और बिहार विधानसभा चुनाव की दो बड़ी चुनौतियां हैं। दिल्ली उसके लिए सम्मान की लड़ाई बन गया है। यहां भाजपा करीब दो दशकों से सत्ता से बाहर है। लगातार 15 साल यहां शीला दीक्षित के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार रही और फिर 2015 में आम आदमी पार्टी ने प्रचंड बहुमत हासिल किया। बिहार में भी भाजपा के लिए कम चुनौतियां नहीं हैं। जनता दल यू के साथ उसकी खटपट जगजाहिर है। उपर से महाराष्ट्र और झारखंड के नतीजों ने जदयू को मुखर होने का मौका दे दिया है।
केजरीवाल नजर आ रहे मजबूत
दिल्ली में भाजपा का मुकाबला अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में बेहद मजबूत नजर आ रही आप से है। मुकाबले में कांग्रेस भी है जो यहां अपनी मजबूत मौजूदगी दर्ज कराने की लड़ाई लड़ रही है। 2015 चुनाव में आप की आंधी चली थी। उसने 70 में से 67 सीटों पर कब्जा जमाकर सभी को हैरान कर दिया था। भाजपा के पास न सीएम चेहरा है न कोई बड़ा मुद्दा। उसी एकमात्रा उम्मीद पीएम मोदी और अमित शाह ही हैं। वहीं, केजरीवाल एलान कर चुके हैं कि वह सिर्फ काम के आधार पर ही वोट मांगेंगे। उनके पास गिनाने के लिए काम हैं भी। मुफ्त बिजली-पानी जैसी आप सरकार की लोकप्रिया योजनाओं का भाजपा कैसे मुकाबला करेगी ये देखने वाली बात होगी।
बिहार में भाजपा के सामने कम चुनौतियां नहीं
बिहार में भाजपा के लिए चुनौतियां कम नहीं हैं। भले ही जदयू एनडीए का घटक दल है, लेकिन दोनों दलों में लगातार तनातनी बनी रहती है। उसपर भाजपा के सामने महागठबंधन की भी चुनौती है। इसमें सबसे प्रमुख दल है लालू प्रसाद यादव की राजद और कांग्रेस। हाल ही में भाजपा झारखंड में झामुमो-कांग्रेस-राजद गठबंधन के सामने बुरी तरह मात खा चुकी है। 2014 लोकसभा चुनाव जीतने के बाद भाजपा को सबसे पहला और बड़ा झटका बिहार में ही लगा था। हालांकि इस बार उसके साथ जदयू है, लेकिन ऊंट कब किस करवट बैठ जाए कहना मुश्किल है। इसके अलावा रामविलास पासवान की लोजपा भी उसके साथ है लेकिन उसके रुख के बारे में भी साफतौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता है।
सहयोगी ही भाजपा को ले डूबे
इन सहयोगी दलों के साथ भाजपा की पटरी कितनी बैठ पाएगी, ये सबसे बड़ा सवाल बना हुआ है। महाराष्ट्र में शिवसेना और झारखंड में आजसू के साथ गठबंधन टूट गया था था, उसी तर्ज पर यहां भी भाजपा के हाथ से बाजी फिसल सकती है। सहयोगी दलों की नाराजगी की कीमत ही भाजपा ने इन राज्यों में चुकाई है। महाराष्ट्र में उसके हाथ आई बाजी फिसली तो झारखंड में पुराना साथी आजसू रूठ गया।
बिहार में भाजपा-जदयू के बीच कई बार तनातनी दिखी है। हाल ही में बिहार के डिप्टी सीएम सुशील मोदी और जदयू के महासचिव प्रशांत किशोर के बीच ट्विटर वार छिड़ गई थी। नागरिकता कानून पर बहस के बाद बात सीट शेयरिंग तक पहुंच गई। पीके ने कहा कि जदयू को ज्यादा सीटों पर लड़ना चाहिए, जबकि सुशील ने कहा कि इसका फैसला दोनों दलों के बड़े नेताओं के बीच बैठक के बाद होगा।
बिहार में सीट शेयरिंग से बनेगा समीकरण
सियासी पंडितों का मानना है कि दिल्ली में अरविंद केजरीवाल बेहद मजबूत स्थिति में हैं। वहीं, भाजपा के सामने पुराने आंकड़ों को दुरुस्त करने की चुनौती है। जबकि बिहार में टक्कर कड़ी है और अभी कहना मुश्किल है कि बाजी किस पार्टी के हाथ लगेगी। यहां सीट शेयरिंग पर बहुत कुछ निर्भर करेगा। जदयू ज्यादा से ज्यादा सीटों की मांग करेगी, लोजपा भी अपनी मौजूदगी दर्ज कराना चाहेगी, ऐसे में भाजपा के सामने दोहरा संकट होगा। महाराष्ट्र और झारखंड के घटनाक्रम को देखते हुए भाजपा को सख्त दबाव का सामना करना पड़ेगा। हिंदी भाषी राज्यों में अपना प्रभुत्व बरकरार रखने के लिए भाजपा को बिहार में सत्ता हासिल करनी ही होगी। वह पहले ही राजस्थान, मध्यप्रदेश जैसे राज्यों को गंवा चुकी है।
केजरीवाल ने ठोकी चुनावी ताल
दिल्ली में भाजपा के सामने सबसे बड़ी चुनौती है केजरीवाल को रोकने की जो काम के आधार पर वोट मांगने का एलान कर चुके हैं। बिजली-पानी पर सब्सिडी ने आप सरकार को यहां लोकप्रिय बनाया है तो शिक्षा व स्वास्थ्य व्यवस्था में सुधार ने केजरीवाल सरकार को प्रशंसा दिलाई है। सरकारी स्कूलों की दशा सुधारने की सरकार की कोशिशें की हर ओर सराहना हुई है। इन्हीं मुद्दों के आधार पर केजरीवाल ने चुनावी ताल भी ठोक दी है। इसके अलावा भाजपा के पास कोई सीएम चेहरा नहीं होने का फायदा भी आप को मिलता दिख रहा है और वह इसे लेकर भाजपा पर सवाल भी दाग रही है।
दिल्ली में चुनाव की तारीखों का एलान हो भी चुका है और प्रचार धीरे धीरे जोर पकड़ रहा है। दिल्ली की 70 विधानसभा सीटों पर 8 फरवरी को चुनाव होंगे और 11 फरवरी को मतों की गणना के बाद नतीजे आएंगे। जोर आजमाइश शुरू हो गई है।
2019 जैसा प्रदर्शन दोहरा पाएगी भाजपा?
2019 लोकसभा चुनाव में दिल्ली की सातों सीटें जीतने वाली भाजपा की कोशिश वही करिश्मा विधानसभा चुनाव में भी दोहराने की होगी। लेकिन पुराने आंकड़े उसके खिलाफ हैं। 2014 में भी भाजपा ने सातों लोकसभा सीटों पर कब्जा जमाया था, लेकिन 6 महीने बाद हुए विधानसभा चुनाव में वह महज तीन सीटों पर सिमट गई। उसकी सीएम उम्मीदवार किरण बेदी खुद अपना ही चुनाव हार गईं। भाजपा ने पिछले महीने ही रामलीला मैदान में पीएम नरेंद्र मोदी की रैली के जरिए चुनावी बिगुल फूंक दिया है। ये रैली 1731 अनधिकृत कॉलोनियों को नियमित करने के मौके पर बुलाई गई थी। भाजपा के लिए इस बार यही सबसे बड़ा चुनावी मुद्दा भी है।
केजरीवाल को मिला पीके का साथ
वहीं, केजरीवाल साफ कह चुके हैं कि वह सिर्फ और सिर्फ काम के आधार पर वोट मांगेंगे। चुनाव तारीख का एलान होने के दिन ही उन्होंने ये भी कहा कि अगर मैंने काम नहीं किया हो तो मुझे वोट मत देना। उनका बयान बताता है कि वह अपनी जीत के प्रति कितने आश्वस्त दिख रहे हैं। इसके साथ ही उन्होंने प्रशांत किशोर की सेवाएं लेकर साफ कर दिया है कि वह फूंक-फूंककर कदम रख रहे हैं। पीके आप के साथ चुनावी रणनीतिकार के तौर पर जुड़े हैं। इससे पहले वह गुजरात में नरेंद्र मोदी, बिहार में नीतीश कुमार और यूपी विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ जुड़ चुके हैं। केजरीवाल के सामने 2015 के इतिहास को दोहराने की चुनौती है जब आप ने 67 सीटों पर कब्जा जमाया था। देखना है पीके केजरीवाल को उनके लक्ष्य के कितना नजदीक पहुंचा पाते हैं।