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एक राजनीतिक भूकंप: जया के बाद अब माया की बारी?


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नई दिल्ली,(एजेंसी)12 मई। ममता बनर्जी, जयललिता और मायावती। एक दौर रहा जब केंद्रीय राजनीति में किसी न किसी बहाने इनकी तूती बोलती थी। लगता है फिर से इनके भी अच्छे दिन आने वाले हैं। तो क्या मौजूदा राजनीति में कोई नई खिचड़ी पक रही है?

सियासी मौके और दस्तूर

बीते कुछ समय की बात करें तो तीनों में सिर्फ ममता बनर्जी ही ऐसी नेता हैं जिनकी गाड़ी फिलहाल ट्रैक पर नजर आती है। बल्कि हाल के चुनाव नतीजों से उनका हौसला थोड़ा और बढ़ा होगा।

नतीजों का नतीजा ये हुआ है कि ममता में गुस्से की जगह विनम्रता ने ले ली है। कहां नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री पद की कुर्सी संभालने के बाद नौ महीने तक ममता सत्ता की उन गलियों से भी परहेज करती थीं जिनमें कहीं न कहीं उनकी छाया महसूस होती थी। थोड़ा और पहले से देखें तो उनके लिए ममता के मुंह से ‘दंगा बाबू’ औऱ ‘बिना दिमागवाले नेता’ जैसे कसीदे ही सुनने को मिला करते थे।

खैर, ये सब अब बीते दिनों की बात है। बीते वीकेंड की बात है जब प्रधानमंत्री मोदी पश्चिम बंगाल के दौरे पर थे – और 20 घंटे के अंतराल में दोनों नेताओं को दो बार मंच शेयर करते देखा गया। खास बात ये रही कि नजरूल मंच में दोनों नेता तय समय से आधे घंटे पहले ही पहुंच गए। लंबे अरसे बाद दोनों को साथ मंच पर देखा गया। उसके बाद राजभवन में उनकी करीब आधे घंटे की मुलाकात रही।

रिश्ता वही, सोच नई

अब बात जयललिता की। कर्नाटक हाईकोर्ट का फैसला आने के फौरन बाद मोदी ने जयललिता को फोन कर बधाई दी। इतना ही नहीं, बताया तो यहां तक जा रहा है कि मोदी के बाद विदेश मंत्री सुषमा स्वराज और अल्पसंख्यक कल्याण मंत्री नजमा हेपतुल्ला ने फोन कर जयललिता को बधाई दी। भ्रष्टाचार के मामले से बरी होनेवाली एआईडीएमके नेता जे. जयललिता को प्रधानमंत्री मोदी और दूसरे नेताओं के फोन बेशक शिष्टाचार का हिस्सा रहे हों, मगर इसका राजनीतिक असर जल्द ही दिखेगा – इस बात से शायद ही कोई इंकार कर सकेगा।

वैसे भी मोदी और जयललिता के रिश्ते शुरू से ही अच्छे रहे हैं। बतौर मुख्यमंत्री दोनों नेता एक दूसरे के शपथग्रहण में भी शामिल हो चुके हैं।

सबका साथ, सबका फायदा

रिश्ता वही जो फायदा पहुंचाए, वरना वो सियासी दायरे से बाहर की बात होगी। शुरुआत जयललिता से करते हैं। लोक सभा में कांग्रेस के बाद जयललिता की पार्टी विपक्ष की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी है। एआईएडीएमके के यहां 37 सदस्य हैं। लोकसभा में उपाध्यक्ष का पद जयललिता की ही पार्टी के थंबीदुरई को ही दिया गया है। इसी तरह राज्य सभा में पार्टी के 11 सांसद हैं।

जहां तक ममता बनर्जी के तृणमूल कांग्रेस की बात है तो राज्य सभा में उसके 12 जबकि लोक सभा में 34 सदस्य हैं।

बात जया और ममता की हो रही हो तो मायावती के जिक्र के बगैर कोई भी ऐसी चर्चा भला पूरी हो सकती है क्या?

आंकड़ों की बात करें तो राज्य सभा में खुद मायावती सहित बीएसपी के 10 सदस्य हैं। हां, लोक सभा में उनके हाथ पूरी तरह बंधे हुए हैं।

लोक सभा में भारी कामयाबी के बावजूद राज्य सभा में कोई भी बिल पास कराना मोदी सरकार के लिए नामुमकिन जैसा है। ऐसे में अगर इन तीन देवियों का साथ मिल जाए तो रास्ते थोड़े कम मुश्किल हो सकते हैं।

ऐसे में क्या समझा जाए कि अब मोदी के इस मिशन की अगली कड़ी मायावती हैं? उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रह चुकीं मायावती के साथ भी बीजेपी का पुराना याराना है। दोनों पार्टियां उत्तर प्रदेश में छह-छह महीने वाली सरकार का एक्सपेरिमेंट कर चुकी हैं। अंत खुशनुमा भले न रहा हो, हालांकि, वो तो अब गुजरे जमाने की बात है। वैसे मायावती फिलहाल मोदी सरकार के प्रति हमलावर रुख अपनाए हुए हैं।

ममता के हाथ में पहले से ही पश्चिम बंगाल की कमान है, जयललिता अब ओ पन्नीरसेल्वम से जल्द ही कुर्सी वापस लेने जा रही हैं। रही बात मायावती की तो फर्श से अर्श के सफर में उन्हें भी तो किसी सियासी साथी की जरूरत तो जरूर हो रही होगी, वरना सफऱ तो बहुत मुश्किल है।

मौका और दस्तूर सियासत के वे नीति निर्देशक तत्व हैं जो खांटी दुश्मनों को भी बेहद करीब ला ही देते है। एक बार फिर ये बात सिलसिलेवार साबित होते दिखती है।


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