इराक़,एजेंसी-16 जून। जो खूनखराबा फिलहाल इराक में चल रहा है, वह पूरी दुनिया के लिए भारी चिंता का कारण है और अगर इस साम्प्रदायिक हिंसा पर किसी भी तरह से रोक नहीं लगती है तो न केवल इराक का विभाजन भी हो सकता है वरन इस हिंसा की आग विश्व के और कई देशों में फैल सकती है। विदित हो कि छापामार सुन्नी संगठन ‘इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक एंड सीरिया’ (आईएसआईएस) ने इराकी सरकार और शियाओं के खिलाफ अभियान छेड़ दिया है।
मोसुल और तिकरित जैसे बड़े-बड़े शहरों को रातोरात अपने कब्जे में लेने के बाद इस संगठन के दस्ते बगदाद की तरफ कूच कर रहे हैं। बगदाद में ही हिंसा फैलने की खबरें आ रही हैं। इसका परिणाम यह हुआ है कि अल कायदा से भी खतरनाक संगठन ‘आईएसआईएस’ ने हजारों इराकी सैनिकों की हत्या कर दी है। इतनी अधिक तेजी से हुए इस हमले के सामने इराकी सरकार के हाथ-पांव फूल गए हैं। उसने अमेरिका और ब्रिटेन से मदद की गुहार लगाई है, लेकिन इराक की आग में पहले ही अपनी अंगुलियां जला चुके अमेरिका और ब्रिटेन की प्रतिक्रिया पूर्वानुमानित है।
ब्रिटेन ने तो अपने हाथ ऊंचे कर दिए हैं, लेकिन अमेरिका के रवैए से लगता है कि इराक में दोबारा अपने फौजी उतारने की बात वह दूर-दूर तक नहीं सोचता है। लेकिन आईएसआईएस के बढ़ते खतरे ने भी उसे सोचने पर मजबूर कर दिया है। आईएसआईएस के खिलाफ हवाई हमले के विकल्प पर वह गंभीरता से विचार कर रहा है और उसने अपने युद्धपोतों को भी खाड़ी में भेजने की शुरुआत कर दी है।
ईरान-अमेरिका गठजोड़ संभव : यह संकट कितना बड़ा है इसका अंदाजा इसी तथ्य से हो जाता है कि ईरान भी इराकी शियाओं और खासकर कर्बला और नजफ जैसे शिया तीर्थस्थलों की हिफाजत के लिए अमेरिका से हाथ मिलाने को तैयार है। इराकी शिया समुदाय के सर्वोच्च धर्मगुरु अयातुल्ला अल सीस्तानी ने ‘सुन्नी आतंकियों’ के खिलाफ जेहाद का ऐलान कर दिया है। इस तरह आधुनिक विश्व में पहली बार दुनिया में शिया-सुन्नी टकराव की स्थिति देखी जा रही है। कुल मिलाकर इराक भयानक सांप्रदायिक गृहयुद्ध की चपेट में आ गया है।
इस अनर्थ की सबसे बड़ी जवाबदेही अमेरिका की दोहरी नीतियों पर जाती है। उसने सद्दाम के पास विनाशकारी शस्त्रों का आरोप लगाकर इराक पर हमला किया था और जब कुछ नहीं मिला तो उसने दुनिया के सामने यह जताया कि इराक में वह सद्दाम हुसैन के तानाशाही शासन की जगह एक आधुनिक लोकतांत्रिक व्यवस्था स्थापित करने जा रहा है। लेकिन व्यवहार में उसने शियाओं को संदेश दिया कि सुन्नियों के अत्याचारी शासन का अंत करके वह सत्ता उन्हें सौंप रहा है। हालांकि इराक में अभी भी महत्वपूर्ण पदों पर शिया ही हैं। प्रधानमंत्री नूरी अल मलिकी भी एक शिया हैं।