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“आप” तो ऐसे ना थे


नई दिल्ली,(एजेंसी)17 जून। पकिस्तान की मशहूर शायर फहमीदा रियाज ने भले ही किसी और सन्दर्भ में ये एक नज़्म कही हो “तुम बिलकुल हम जैसे निकले, अब तक कहाँ छुपे थे भाई”, मगर हिन्दुस्तानी सियासत में धूमकेतु की तरह उभरी आम आदमी पार्टी के सन्दर्भ में भी ये लाईने बहुत मौजूं बैठ रही हैं। देश की दूसरी सियासी पार्टियाँ आज “आप” के सन्दर्भ में यही लाईने गुनगुना रही होंगी।

अभी कल ही कानून मंत्री (अब पूर्व) जितेन्द्र तोमर की फर्जी डिग्री मामले में गिरफ्तारी और इस्तीफे की खबर और आज दूसरे पूर्व कानून मंत्री सोमनाथ भारती पर अपने पत्नी को पीटने का आरोप लग गया। महज 48 घंटे के भीतर आप को दो शर्मिन्दगियाँ झेलनी पड़ी हैं।

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इसके पहले आप की एक बड़ी नेता और मंत्री राखी बिड्लान पर कमीशनखोरी के आरोप लगे हैं और पार्टी के आईकान कुमार विश्वास पर महिला के यौन उत्पीडन का।

आम तौर पर सियासत की काली कोठारी में इस तरह के दाग लगाना कोई नयी बात नहीं है, मगर जिस शुचिता और बदलाव की राजनीति के अलमबरदार बनने के दावे के साथ “आप” राजनितिक क्षितिज पर उदित हुई थी उसके बरक्स आज “आप” की तस्वीर बहुत धुंधली पड़ गयी है।

दिल्ली के रामलीला मैदान का वो मंजर आज भी देश के युवाओं के बदन में सिहरन पैदा करता है जब अरविन्द केजरीवाल और अन्ना हजारे ने भ्रष्टाचार और बदलाव के खिलाफ एक हुंकार भरी थी। आम तौर पर मंचो पर दिखाई देने वाले नेताओं से इतर सामान्य कपड़ो में आम आदमी को खुद के नेतृत्व का आभास हुआ था। दिल्ली का रामलीला मैदान उन ऐतिहासिक क्षणों का गवाह बन रहा था जो बाद में दिल्ली की हुकूमत को एक नयी चुनौती देने वाली थी।

और उसने चुनौती दी भी , एक के बाद एक। दिल्ली के पहले चुनावो में सफलता और फिर सरकार का इस्तीफ़ा, बनारस में नरेन्द्र मोदी के अश्वमेघ यज्ञ का सामना और फिर दुबारा दिल्ली के चुनावों में एकतरफा जीत ने “आप” की राजनीति को सामान्य रूप से स्वीकार्य बना दिया।

एक विश्लेषक की दृष्टि से देखें तो आप और अरविन्द केजरीवाल के इस उभार को 70 के दशक में सिने पटल पर उभरी अमिताभ बच्चन की एंग्री यंग मैन की छवि से काफी जोड़ा जा सकता है। अमिताभ उस आम आदमी के प्रतिक बन गए थे जो खुद को विद्रोह करने की स्थिति में नहीं पाता था मगर परदे पर अमिताभ के जरिये अपनी कुंठाओं से निजात पा जाता था। आप की स्थिति भी यही थी। राजनीति के भ्रष्ट दलदल को साफ़ करने के प्रतीक बन गए थे अरविन्द केजरीवाल और उनके साथी।

उपमाए गढ़ी जा रही थी और सपने निरंतर बुने जा रहे थे। “आप” सफलता और उत्साह का नया प्रतीक बन चुकी थी।

मगर इसके बाद हुए घटनाक्रम ने “आप” समर्थकों में बेचैनी पैदा करनी शुरू कर दी है। बदलाव की राजनीति की जगह अराजकता की राजनीति ने ले ली हैं। पार्टी के नेताओं के बयांन दिन ब दिन शर्मनाक होते जा रहे हैं। महिला उत्पीडन से ले कर भ्रष्टाचार तक कोई भी ऐसा मामला नहीं है जो “आप” को दूसरी राजनैतिक पार्टियों से अलग करता हो।

पार्टी के अन्दर का घमासान और उसके बाद योगेन्द्र यादव, डा. आनंद कुमार और प्रशांत भूषण के पार्टी से अलग होने के बाद स्थितियां और भी बदतर हुई हैं। 15 हजार रुपये की सोलर स्ट्रीट लाइट को एक लाख रुपये में खरीद कर लगाने और 10 हजार रुपये में लगने वाले सीसीटीवी कैमरे के लिए छह लाख रुपये का भुगतान करने के आरोपों ने “आप” के वजूद पर कुछ धब्बे और भी लगा दिए हैं।

पारदर्शिता का नारा देने वाली पार्टी पर चंदे को लेकर सवाल खड़े हुए और एक स्वघोषित दलाल से मिले 2 करोड़ रुपये का हिसाब तो पार्टी भले ही दे दे मगर दलाल से चंदा लेने और चंदे का स्रोत साफ़ रखने की उसकी बात पर भी सवालिया निशान खड़े हो गए हैं।

जिस शख्स को “आप” ने कानून मंत्री बनाया उसकी ही डिग्रियां फर्जी निकल रही हैं और अब तो उसके फर्जी डिग्री रैकेट का सदस्य होने की पड़ताल भी शुरू को गयी है।

चाल , चरित्र, चेहरा की दुहाई भारतीय राजनीति में पहले भी दी गयी है मगर “पैसा खुदा तो नहीं मगर खुदा से कम भी नहीं “ और अप्राकृतिक यौन शोषण कांड ने उस दावे को कब का झुठला दिया है। क्या आप भी कमोबेश उसी राह पर चल पड़ी है।

राजनीति में 3 वर्ष कोई समय नहीं होता। मगर सपने और उम्मीद टूटने के लिए महज कुछ पल ही काफी होते हैं। चुनाव जीतना और हारना तो खेल का हिस्सा है मगर शुचिता और बदलाव की राजनीति संकल्प का विषय है। एक के बाद एक घट रही घटनाओं ने शुचिता पर भी दाग लगाया है और बदलाव के रास्ते पर भी सवाल खड़े किये हैं।

यह कह कर आसानी से पल्ला झाडा जा सकता है कि ये घटनाये तो विपक्ष की साजिश है, मगर उन करोडो युवाओं के मन पर हर घटना से उपजाने वाली विरक्ति को कैसे रोका जाएगा जो अपना समय, श्रम और संसाधन झोक कर इस बदलाव की राजनीति के लिए मैदान में कूद पड़े थे।

“आप”के कर्णधारों के लिए सत्ता में बने रहना कोई चुनौती नहीं है मगर जनता का विश्वास कायम रखना बड़ी चुनौती है। फिलहाल तो अरविन्द केजरीवाल और उनके साथी “आप” की साख बचाने के संकट से जूझ रहे हैं।


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